खिड़की के बाहर - कविता - ममता मनीष सिन्हा

खिड़की के बाहर दिखती है,
एक बड़ी विस्तृत सी दुनिया!
तो क्या खिड़की के बाहर अभी,
है सचमुच ही एक बड़ी दुनिया?

इच्छाएँ प्रतिपल जगती हैं,
खुली हवा में साँस लेने को,
पर हवा में चहुओर फैल गया है,
सुविधादायी यंत्र का विषैला धुआँ।

तो क्या खिड़की के बाहर अभी,
है हवा साँस लेने जीने लायक?

इच्छाएँ कुलाचे भरती हैं,
खुले आकाश में उड़ जाने को,
पर कल ही छोटी चिड़िया को,
एक बाज ने पकड़ा आकाश में।

तो क्या खिड़की के बाहर अभी,
है खुला आकाश उड़ने लायक?

इच्छाएँ हिलोरे मारती हैं,
निश्छल नदी बन जाने को,
पर अभी ही तो नदी को बाँध,
एक बड़ा मनोहारी डैम बना है।
 
तो क्या खिड़की के बाहर अभी,
हैं रास्ते नदी की निश्छलता लायक?

मेरी छुटकी की इच्छाएँ हैं,
घर के बाहर खेलने जाने को,
पर हाल में ही एक दानव ने,
पड़ोस की एक छुटकी को।

तो क्या खिड़की के बाहर,
है जगह बेटियों के लायक?

और क्या खिड़की के बाहर,
कभी खेल सकती हैं बेटियाँ?

ममता मनीष सिन्हा - रामगढ़ (झारखंड)

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