सत्पथ - कविता - रवि कान्त उपाध्याय

कहो दशरथ! राम भी यदि महत्वकांक्षी हो जाते,
तुम्हारे वरदान सारे धरे के धरे रह जाते,
तुम्हें पदच्युत कर के राम राजा बन जाते,
भरत को कारागार अन्य भाईयों से शीश नवाते।

ज्ञान का अभिमान जो सर पर चढ़ा लेते,
निपुण थे विद्या में धनुष भी उठा लेते,
चाहते तो नया एक राज्य भी बसा लेते,
किंतु राम जो हैं वह राम न कहलाते।

राम अपने जीवन का यदि लोभ करते,
ये चुनूँ या वो चुनूँ का जोग करते,
महल और जंगल को तराजू पर तौलते,
अवश्य राम कभी वन की ओर न चलते।

होते हैं मनुज निर्भीक और साहसी जो,
वे राज्य और भाग्य पर भरोसा करते नहीं,
पाते हैं बाल्यकाल से नेक गुण और संस्कार जो,
वे माता और पिता की अवहेलना करते नहीं।

राम भी थे उनमें से ही एक,
अद्भुत था बुद्धि, कौशल और विवेक,
पिता और गुरु के समक्ष कभी सर उठाया नहीं,
अन्याय के समक्ष कभी भी सर झुकाया नहीं।

रवि कान्त उपाध्याय - प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)

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