वृहद क्षणों ने सुखद भाव से
मन में पाया जब विश्राम,
विस्तृत नभ ने तृप्त हृदय से
किया धरा को तभी प्रणाम।
कोलाहल करता खिला खिला सा
जब समीर पेंगें भरता है,
हल्की बूँदों का कर आचमन तब
उड़ती सरिता का बोध कराता हैं।
उड़ते कपोत मस्त हुए जब
इस सरिता में गोते लेते हैं,
हिलते डुलते प्रसन्न भाव से
कुछ अंबुज जैसे ही दिखते हैं।
दिनकर की लेखा इतराती सी
जब इन बूँदों का आलिंगन करती हैं,
स्वर्ण मणियों से आच्छादित हो
नभ के कंगन सी लगती हैं।
शृंगार सहित जब सरल भाव से
व्योम धरा से मिलता है,
कुछ झिझकी सी हरियाली भी
क्षितिज पर रंग बरसाती है।
दूर तभी शीतल निर्मल
जब शशि,
गरिमा अपनी उफनाती है,
प्रणय मंत्रणा कर त्रप्त हृदय से
व्योम धरा खिल उठते है।
सौम्य सुगंधित मुग्ध वसुधा तब
अनायास कह उठती है,
सावन की इस दिव्य छटा में
एक मन ही क्या,
युग भी हिलकोरे लेता है।
रामासुंदरम - आगरा (उत्तर प्रदेश)