पुकार रही वह द्रुपद सुता - कविता - राघवेंद्र सिंह

पुकार रही वह द्रुपद सुता 
हो रहा सभा में चीरहरण।
लाचार हुए सब मूक बधिर
नारित्व का हो रहा क्षरण।

कल तक जो थी वह आभा 
आज भूमि पर गिरी पड़ी।
श्यामल थी वह थी कोमल
आज केश से बिखर खड़ी।

कल तक थी महलों की रानी
आज खड़ी वह सभा बीच।
दृगों से अश्रु बहे निर्झर
था रहा दुःशासन वस्त्र खींच।

मौन हुए सब शूरवीर वो
भीष्म पितामह, गुरु द्रोण।
दृग कपाट हों बंद वो जैसे
मान मर्यादा सब गए छोड़।

सभा बीच में खड़ी द्रौपदी
पूछ रही तन का अस्तित्व। 
हृदय पीर वह सह न पाई 
माँग रही अपना वो सतित्व।

क्षत्राणी थी अस्त्र उठाकर
थी युद्ध निमंत्रण दे सकती।
किंतु फँसी थी द्युत क्रीड़ा में
केवल प्रश्न थी रख सकती।

नारी होकर स्वयं को कोसा
क्यों खेलों का हाथ रही।
हार गई वह उस चौसर में
इस बात से वह अज्ञात रही।

था दुर्योधन प्रतिशोध युक्त 
गई दुःशासन मति मारी।
छोड़ लाज वह निर्लज्ज
खींच रहा द्रौपदी सारी।

हार गई वह अपनों से
उमड़ पड़े दृग से अश्रु।
हो लाचार स्त्री सी वह
गिरा रही विषादाश्रु।

स्वाभिमान की लाज हेतु
याद किया गिरिधारी को।
पुकार रही कंपित स्वर में 
बृजमोहन कृष्ण मुरारी को।

लगा खींचने दुष्ट दुःशासन
चीर सभा में नारी की।
लगा हाँफने हार गया वो
देख विशालता सारी की।

धर कर रूप वस्त्र का मोहन
तुरत सभा में आए पधारे।
बहन द्रौपदी लाज बचाने
अदृश्य रूप में मोहन प्यारे।

पल ही पल में भरी सभा में
वस्त्र का पर्वत बना विशाल।
कौरव सब हो गए शिथिल
देख हार की अपनी ज्वाल।

गिरिधारी ने लाज बचाई
अपना धर्म है आज निभाया।
द्रुपद सुता की एक गुहार से
सर्व जगत को है हर्षाया।

द्रुपद सुता वह अंत में बोली
जल्द ही होगा सबको बोध।
मेरे इस अपमानित स्वर का
पांडव ही लेंगे प्रतिशोध।

राघवेंद्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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