वहम - कविता - दीपक राही

ज़हन में है वो मेरी,
तो ज़हन में ही रहने दो,
वास्तविकता में क्या रखा है,
अगर वो वहम में है मेरी,
तो वहम ही रहने दो।

वहम था मेरे कि तुम
रहोगे पास मेरे,
इक अहम था विश्वास में मेरे,
अगर वो वहम में है मेरी,
तो वहम ही रहने दो।

वहम पाल रखे थे
हमने भी कई सारे,
कि मर जाएँगे बिछड़कर,
अगर वो वहम में है मेरी,
तो वहम ही रहने दो।

अहम था मैं उसके लिए,
मगर ये वहम था शायद मेरा,
ख़्याल अच्छा था मेरा पर,
अगर वो वहम में है मेरी,
तो वहम ही रहने दो।

जब से जागा है अहम मेरा
अब ख़ुद पर भी रहम नहीं आता, 
सब कुछ हार जाने के बाद भी
अगर वो वहम में है मेरी,
तो वहम ही रहने दो।

अगर वहम था तो वहम ही रहने दो,
सच्चा नहीं तो झूठा ही कहने दो,
अब मुझे मेरे हालात पर रहने दो,
अगर वो वहम में है मेरी,
तो वहम ही रहने दो।

वक़्त-बे-वक़्त हम उनकी परवाह 
किया करते थे,
ख़ुद से ज़्यादा उनका दिदार 
किया करते थे,
बेपनाह उन्हें इश्क़ किया करते थे,
अगर वो वहम में है मेरी,
तो वहम ही रहने दो।

दीपक राही - जम्मू कश्मीर

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos