साहचर्य का अस्तित्व - कविता - कार्तिकेय शुक्ल

ये मत सोचो 
कि जो तुमसे जुड़े हैं,
तुम उनसे अच्छे हो
बल्कि ये सोचो 
कि तुम जिनसे जुड़े हो
वे तुमसे अच्छे हैं।

बलखाती नदी, शीतल पवन,
हरे-भरे जंगल और ऊँचे पहाड़,
सिर्फ़ अपने वजह से नहीं
बल्कि उन अवरोधों
और जड़ों के वज़ह से
सुंदर और सुकूनदायक दिखते हैं
कि जिन पर वे टिके हैं।

साहचर्य का अस्तित्व ही
सच को और सच,
खरा को और खरा,
प्यारा को और प्यारा बनाता है।

ज़िंदगी के चाशनी में 
डूब कर ही,
लिया जा सकता है
मीठे का स्वाद।

कार्तिकेय शुक्ल - गोपालगंज (बिहार)

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