प्रश्न स्त्री बौद्धित्व का - कविता - ममता रानी सिन्हा

सदियों से ही पूछ रही है एक स्त्री,
प्राचीन दोराहे पर अबतक खड़ी।

क्या गृहदेहरी के बाहर भी कभी,
उचित सुसम्मान दे पाओगे मुझे?
जैसे मैं लगाती हूँ अपने सर-माथे,
तुम्हारी पुरुषोचित यश कीर्ति को,
तुम भी मेरी स्त्री मान प्रसिद्धि को,
क्या कभी हृदय से अपना पाओगे?

सदियों से ही पूछ रही है एक स्त्री,
प्राचीन दोराहे पर अबतक खड़ी।

जहाँ से उसका जिज्ञासु बुद्ध मन,
ज्ञान पिपासु वीरक्त वैरागी यौवन,
पुकारता उसे महा परम् ज्ञान को,
निर्वाण से महा-परिनिर्वाण तक,
प्रत्यक्ष मोक्ष के सुमंगल धाम को,
सृष्टि शिक्षित करती अभिज्ञान को,
क्या दृष्टि तुम्हारी इस सुसत्य का,
प्रदर्शित शाश्वत रूप देख सकेगी?

सदियों से ही पूछ रही है एक स्त्री,
प्राचीन दोराहे पर अबतक खड़ी।

पर निर्वाण से महापरिनिर्वाण तक,
के बीच पड़ने वाले दो महापड़ाव,
प्रथम उस महाभिनिष्क्रमण को,
क्या सहन कर पाएगा पुरुष हृदय,
किसी स्त्री के अखण्ड वैराग्य को,
पुरुष द्वारा निर्धारित सीमारेखा को,
लाँघती स्त्री की आत्मस्वतंत्रता को?

सदियों से ही पूछ रही है एक स्त्री,
प्राचीन दोराहे पर अबतक खड़ी।

द्वितीय उस धर्मचक्रप्रवर्तन को,
संग्रहित कर पाओगे तुम अपने,
पुरुष हृदय में शिष्य की भाती?
एक स्त्री द्वारा महापरमज्ञान को,
जगजननी द्वारा जगत प्रमाण को,
स्वीकार कर पाओगे एक स्त्री के,
महाज्ञानी महाबोधि अवतार को?

सदियों से ही पूछ रही है एक स्त्री,
प्राचीन दोराहे पर अबतक खड़ी।

तुम्हारे स्वयं द्वारा रचित मर्यादा-ग्रंथ,
पुरुष द्वारा ही स्त्री को निर्धारित पंथ,
जिसमे तुम निर्देशक मैं अनुगामिनी,
परन्तु बंदिनी हो कर भी रही सदा से,
स्त्री एक स्वतंत्र आत्मा की स्वामिनी,
क्या आत्मसात कर पाओगे सत्य को?
क्या उत्तर दे पाओगे शाश्वत प्रश्न का?
जी सकोगे मेरे बौद्धित्व को मेरे संग?

सदियों से ही पूछ रही है एक स्त्री,
प्राचीन दोराहे पर अबतक खड़ी।

ममता रानी सिन्हा - रामगढ़ (झारखंड)

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