प्यासी धरा - कविता - महेन्द्र सिंह राज

घनघोर घटा मड़राई
अम्बर में बादल छाए, 
करते हैं आँख-मिचौनी
जब इधर उधर को धाए।

बादल की आँख-मिचौनी
अब देख धरा हरषाए,
वारिद मिलने को आतुर
बन अम्बु नीर बरषाए।

भीगे अवनी का कण कण
सद्य नहाए बाला सी, 
जग में छाई हरियाली
हरित मेखला माला सी।

जल कण तरु के पातों पर
मोती सा शोभा पाते,
बारिश रुकते ही नभ में 
खग पक्षी दल मड़राते।

धरती का कोना-कोना
हरियाली से सज जाता, 
पुलकित हो बादल नभ से 
अवनी की प्यास बुझाता।

एक बरस प्यासी धरती
देखे अम्बर प्रियतम को, 
व्यथा न सह पाए जब नभ
जल बरसा हरता तम को।

धरती की प्यास बुझाकर
फिर नीर सिन्धु को धाता,
रवि किरणों से वाष्पित हो
घन बन अम्बर में छाता।

नीरद नभ नीर धरा का
चलता यह काम अविराम, 
यदि नभ घन वायु सिंधु है 
तो सिन्धु सरिता जल धाम।

महेन्द्र सिंह राज - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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