ज़िंदगी का सफ़र प्यारा,
हमें कुछ यूँ सिखाता है।
बढें पथ पे सदा जो हम,
हमें तो चलते जाना है।
जीवन की डगर ऐसी,
पल-पल काँटों की छड़ी।
काँटों को हटाके तुम,
बना दो फूलों की कली।
चलते रहो बढ़ते रहो,
बस तुम आगे तो बढ़ो।
पीछे जो तुम्हें डालें,
पर तुम आगे ही बढो।
बिगड़ी को बनाए जो,
मानव है जो धरती का।
सच्चा मीत रे मनवा,
तुम्हारा साथी रे मनवा।
हाथों की लकीरों में,
माथे की लकीरों में,
ढूँढ़ो ना छवि अपनी,
अपनी इन तो बातों में।
बनाएँ कामयाबी को,
जीवन की कड़ी जो हम,
बदी की भीड़ रे मनवा!
डरें ना भीड़ से जो हम।
दिखे दुनिया को ग़ैरों के,
हज़ारों नुक़्स तो जो यूँ,
मगर अपने दिखें ना जो,
हज़ारों नुक़्सों की झड़ी।
छल त्यागो, कपट त्यागो,
धरती जो ये अपनी है,
अपनेपन से जीके तुम,
सदा ख़ुशहाल तो जानो।
डॉ. शंकरलाल शास्त्री - जयपुर (राजस्थान)