एक अधूरी दास्ताँ - कविता - सुनील माहेश्वरी

कितनी बातों की ख़ामोशी,
उन्हें बतानी थी,
हर एक अक्स की कहानी 
उन्हें बतानी थी।
सुबह की इबादत और,
शाम की अज़ान भी
उन्हें बतानी थी।
शौक चढ़े थे परवान हमारे,
ये बात भी उन्हें बतानी थी,
ख़्यालो के समुंदर में मिलकर,
डुबकियाँ जो लगानी थी।
मालूम गर हो तो छुट्टियों 
के अहसास वाली 
बात भी उन्हें बतानी थी।
कब वक़्त बीता उस पत्र 
में लिखते गए...
ढलते दिनों में 
एकांत को सिमटते गए।
बंजर कहानी को उपजाऊ 
करते रहे...
शिकायत उनकी थी फिर 
इस कदर की पत्र लिख कर भी,
दास्ताँ अपनी अधूरी बुनते रहे।

सुनील माहेश्वरी - दिल्ली

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