सावन - गीत - बृज उमराव

रिम झिम बरसे मेघा सैंया,
मनवां भीगा जाए।
सावन की रुत बड़ी सुहानी,
मन मोरा ललचाए।।

जिया जले मोरा भीतर भीतर,
उसको कौन बुझाए।
तुम तो गए परदेश कमाने,
धीरज कौन दिलाए।।

दर्द जिगर में उठता ऐसा,
पीर सही न जाए।
जब जब बिजली कडके नभ में,
मन मोरा घबराए।।

सखियाँ बोलें आजा गोरी,
काहे खड़ी ललचाए।
झूले पड़ गए हैं डाली पर,
देवें तुम्हें झुलाए।। 

ज्यों ज्यों झूला ऊपर जाए,
मन मोरा घबराए।
काश जो होते पास हमारे,
देते तुम्हीं झुलाए।। 

दिन बीते हैं गए महीने,
साल भी निकला जाए।।
अब तो मेरे प्रियतम आजा,
सावन तुम्हें बुलाए।

जब सों गए पलट न देखा,
एकदम दिया भुलाए। 
का सौतन का फेरा पड़ गओ,
लीन्हों तुम्हें फँसाए।। 

नैनन धार बहे अंसुवन की, 
बिलकुल सूखे नाए। 
सूख के तन काँटा भओ मोरा,
कैसे तुम्हें बताए।। 

का मसगूल भए काम पे,
हमरी याद न आए। 
पाती भेजी ख़बर कराई,
उत्तर देते नाए।। 

तुरत लौट के ढिंग मे आओ,
जियरा मोरा जुड़ाए। 
अगर लौट के अब न आए,
ज़िंदा पइहो नाए।। 

बृज उमराव - कानपुर (उत्तर प्रदेश)

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