विरह गाते हो - ग़ज़ल - ममता शर्मा "अंचल"

अरकान : फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
तक़ती : 22 22 22 22

जब मन होता है आते हो।
जब जी चाहे तब जाते हो।।

आते  जाते बिना बताए,
हमको अक्सर चौंकाते हो।

या तो तुम मनमौजी हो जी,
या हमसे मन बहलाते हो।

हमने तुमको अलग न माना,
तुम जाने क्यों इतराते हो।

ऋतु आई हो भले मिलन की,
फिर भी सदा विरह गाते हो।

रखते मीत बे-रुख़ी जितनी,
हमको उतने ही भाते हो।

यही प्यार होता लेकिन,
तुम क्यों नहीं समझ पाते हो।

हर पल उलझन में है "अंचल",
क्यों न कहो तुम सुलझाते हो

ममता शर्मा "अंचल" - अलवर (राजस्थान)

साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिये हर रोज साहित्य से जुड़ी Videos