ज़िंदगी बसर कर - कविता - विकाश बैनीवाल

इतना नाज़ुक नहीं तन
मामूली आग से राख हो जाए,
यह राख तज़र्बों की ढेरी है।
इधर रेत फिसली मुट्ठी से
गर्म-गर्म हवा निकली,
बे-वक़्त कंबल ओढ़ सो गया।
ताज्जुब हुआ कायनात को 
शरीर ख़ाक ना हुआ,
वक़्त रहते उठ गया।
ख़फ़ा हुआ जो मयख़ाने से
मौत का नशा चढ़ गया,
हर दफ़ा यूँ बच कर निकला।
मौत की गिरफ़्त ढीली पड़ी
गीली लकड़ियों की सख़्ताई,
उससे दफ़नाया भी न गया।
नज़रें इनायत ख़ुदा की
पड़ी जो जो कोने किनारे,
रहम बख़्शी मालिक ने।
तलब लगी थी मौत देखने की
सबब ना मिला तलब का,
फ़रमाया आख़िरी ख़्वाहिश थी!
चिलमन से झाँका एक बार
फिर आमीन कह टाल दिया,
जो ताबीर निकले ज़िंदगी का।
आख़िरी फ़ैसला होगा कभी तो
मसरूर रहे पल पल,
'विकासा' फिर ज़िंदगी बसर कर।

विकाश बैनीवाल - भादरा, हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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