वह तो झाँसी वाली रानी थी - कविता - गाज़ी आचार्य "गाज़ी"

चलो सुनाऊँ एक कहानी
जिसमें एक रानी थी,
मुख से निकले तीखे बाण 
वो शमशीर दिवानी थी।

थी वो ऐसी वीरांगना
उसकी शौर्य भरी जवानी थी,
सर पर सजा था केसरी रंग
पेशानी पर मिट्टी हिन्दुस्तानी थी।

वह तो झाँसी वाली रानी थी।
वह तो झाँसी वाली रानी थी।

जल उठी थी जब क्रांति
ना कोई संकोच, ना थी कोई भ्रांति,
बाँध पीठ पर लाल को
जब मूँह में लगाम थामी थी।

लहू से सीचेंगे इस मिट्टी को,
बात बस यही ठानी थी।

वह तो झाँसी वाली रानी थी।
वह तो झाँसी वाली रानी थी।

ख़ूब लड़ी रण-भूमि में
वो माँ दुर्गा, माँ भवानी थी,
लहू के क़तरे-क़तरे से
जिसनें लिखी अमर कहानी थी।

आख़िरी साँस तक लड़ी,
वो पर हार नहीं मानी थी।

वह तो झाँसी वाली रानी थी।
वह तो झाँसी वाली रानी थी।

दीवार किले की टूट गई 
आस सभी की छूट गई,
सीना तान खड़ी रही
वो ख़ूब लड़ी मर्दानी थी।

लड़ते-लड़ते प्राण गवाएँ,
मिट्टी के लिए दी क़ुर्बानी थी।

वह तो झाँसी वाली रानी थी।
वह तो झाँसी वाली रानी थी।

गाज़ी आचार्य "गाज़ी" - मेरठ (उत्तर प्रदेश)

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