मर्यादा - कविता - सरिता श्रीवास्तव "श्री"

मर्यादा सिर्फ़ नारी के लिए,
चौखट सिर्फ़ नारी के लिए,
निभा जाए तो है सुलक्षणा,
लाँघ जाए तो है कुलक्षणा।

नहीं ख़ुद से ख़ुद का परिचय,
कोई निर्णय न कोई निश्चय,
पैदा हुई पितु का उपनाम,
शादी हुई पति का उपनाम।

लक्ष्मण सी वह मर्यादा कहाँ,
मर्यादित राम सा भ्रात कहाँ,
सीता मर्यादा सतत जारी,
अग्नि परीक्षा देती है नारी।

ख़ुद को मर्यादित रखने में,
मर्यादा सुशोभित होती है,
सीता का निर्णय राम लिया,
लव-कुश जननी वन रोती है।

जीना-मरना नारी का सब,
पति बच्चों पर ही न्यौछावर,
मर्यादित उड़ान है उसकी,
यही स्वछंद है नीलाम्बर। 

निर्द्वंद्व परवाज़ को उद्यत है,
ख़ुद की इज़्ज़त ही स्व‌उन्नत है,
नर के वश नहीं स्व चक्षु मन,
रोंद हवसी को दामिनी बन।

गहराता तिमिर उसका दुश्मन‌,
कब चार हाथ छू लें तन-मन,
जंगली न कोई आतताई,
समाज से आए बाप भाई।

कर दी हैं सारी हदें पार,
वस्त्र फाड़े किए तार-तार,
गुनहगारों से नहीं सवाल,
निर्दोष पर सवाल ही सवाल।

मर्यादा कटघरे खड़ी है,
देह आत्मा सब छलनी है,
समाज के नज़रिए पर क्षुब्ध,
कब तक रहेगी भोग्या लुब्ध।

मौन रह कहलाए शालीन,
चुप्पी तोड़े तो चरित्रहीन,
समाज कैसी रीत बनाई,
स्त्री को बेड़ियाँ पहनाई।

करवाचौथ व्रत पति के लिए,
कोई जश्न नहीं ख़ुद के लिए,
बेटी जन्म पर शोक मनाते,
सुत जन्मे तो ढोल बजाते।

क्या मर्यादा कोई न जाने,
बीते ज़माने की गाथाएँ,
गर्भ में ही तनया हत्यारे,
मर्यादा "श्री" ढोल बजाएँ।

सरिता श्रीवास्तव "श्री" - धौलपुर (राजस्थान)

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