मंज़र - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

पहले सुना करते थे,
अकाल का मंज़र
और महामारियों की कहानियाँ।
लेकिन इस कोरोना काल में,
अब उठ रही है,
एक नहीं कई अर्थियाँ।
माँ का लाल
बिछुड़ते देखा
और बहनों का भाई।
आशाए बनी निराशा,
कल की सुहागन
आज बनी पति हीना।
सब रिश्ते नाते टूट गए,
सबको बिलखते
छोड़ा है साईं।
कोई पड़ा सैया पर
भीख माँग रहा 
अपने साँसों की,
सपने बुने बुनाए
माँ बाप की आशाओ 
पर फेरा पानी।
अरे ऐसा निर्दयी कोरोना
क्यों बनाता है,
भगवान
अपने अपनो का ही,
ले रहा प्राणी।
हमने कभी सपने 
में भी नहीं सोचा था,
क्या इतनी
असावधानी,
महँगी पड़ेगी,
कि अब वह प्रिय
लौट कर भी नहीं आएगा,
ऐसा मंज़र हमने
कभी न देखा
कि अपने ही लोगो के 
दुःख में न जा कर
मन मसोस कर
रह जाएगा।
अभी भी सावधान हो जाओ,
मास्क लगाकर
दो गज की दूरी बनाओ,
खाँसी बुखार
आने पर न करो लेतलाली।
करा जाँच
हरा दो कोरोना
की मनमानी।
कपूर काली मिर्च
का करो उपयोग हमेशा
पीते रहो गर्म पानी,
रहो संयम से,
जीवन है अति प्यारा,
न करो मनमानियाँ
पहले सुना करते थे,
अकाल का मंज़र
और महामारियों की कहानियाँ।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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