रात्रि की निस्तब्धता में, चाँदनी के द्वार जाऊँ।
सूर्य की मनुहार में फिर से प्रभाती राग गाऊँ।।
शून्य की मानिंद, जीवन फिर उसी से हारके,
धमनियों में क्षोभ बहता, चक्षु सावन वारते।
देह के सौजन्य से विरहिन सरीखा रूप पाऊँ,
सूर्य की मनुहार में फिर से प्रभाती राग गाऊँ।।
गीत लिखने की तपस्या, फिर उसी को भेंट दूँ,
या बिताया काल जितना अश्रुओं से मेट दूँ।
व्योम सी रसधार लेके फिर तेरे अन्तस् पे छाऊँ,
सूर्य की मनुहार में फिर से प्रभाती राग गाऊँ।।
बाँवरा मन, बींधता है नित्यप्रतिदिन रूठ के,
रिक्तियों को पोसता है, स्वप्न मेरा टूट के।
मोह का जंजाल झूठा चाहती हूँ छूट जाऊँ,
सूर्य की मनुहार में फिर से प्रभाती राग गाऊँ।।
धैर्य मेरा क्षीण है और वेदना भरपूर है,
किन्तु नभ पे देखती हूँ, ऊष्मा है नूर है।
नूर बिखरे प्रेम का, उर में नहीं वैराग्य लाऊँ,
सूर्य की मनुहार में फिर से प्रभाती राग गाऊँ।।
रात्रि की निस्तब्धता में चाँदनी के द्वार जाऊँ।
सूर्य की मनुहार में फिर से प्रभाती राग गाऊँ।।
प्रीति त्रिपाठी - नई दिल्ली