गुफ़्तुगू - कविता - रामासुंदरम

कुछ पल पहले 
धूप का जो शरारती थक्का 
खिड़की के फर्मे को जकड़े था,
वह अब सहमा सा 
कतरन बन आँगन पर
उतर आया था।
शायद शाम की तेज़ी को 
वह रोक नहीं पा रहा था।

इधर कोने में खड़ा अमरुद का पेड़ 
चिड़ियों की चुलबुलाहट से बे-ख़बर 
उस कतरन को अजूबा सा देख रहा था।
साथ छोड़ रहे कतरन से, 
वह बोला, "तुम क्यों खिड़की पर चढ़े,
जो तुम्हें उतरना पड़ा।
मेरी मानो तो न चढो, न उतरो,
मेरी तरह बनो 
वक़्त के साथ खड़े हो, नज़ारा देखो  
और सिर्फ़ फैलो - ऊँचे उठो"I 

धूप की कतरन ने ख़ामोशी से सुन 
हिमाक़त की,
और कहा, "मैं किसी के साथ क्यों चलूँ?
मैं तो आने वाले वक़्त की पैबंद हूँ,
जो कुछ पल बाद 
दिन ढलते ही
गहरी चादर में छिप जाएगी,
पर उसकी कुलबुलाहट, छटपटाहट 
न छिपेगी न दबेगी।
क्यों कि,
यह पैबंद गहरी चादर में छिपी 
अपनी जिजीविषा को संजोये,
कुछ सतरंगी धागों को 
ऐंठती, सँवारती रहेगी 
जब तक यह एक सुनहरी चादर में
कल तक न बदल जाएगी"।

चादर से कतरन, फिर कतरन से पैबंद 
और, फिर वही कुलबुलाहट, छटपटाहट,
ये सभी मेरे शौक़ हैं, जिज्ञासा हैं एवं शक्ति हैं,
मैं इन्हें क्यों मृतप्राय होने दूँ,
मैं तो हर पल बढ़ता हूँ, फिर फैलता हूँ,
सिकुड़ता हूँ,
फिर विलुप्त सा दिखता हूँ,
सिर्फ़, बढ़ने के लिए।

क्यों कि रात की
गाढ़ी चादर में तो तुम 
बेगाने से लगते हो 
और फिर मुझे तो तुम्हे 
रोज़ एक नई नवेली चादर से नवाज़ना है।

तुम बड़े भोले हो,
माना कि हरे भरे हो 
पर हो तो मेरे मुरीद 
क्यों की, 
मै एक नाचीज़ सा कतरा बन कर भी 
समय के प्रांगण में,
सांय के रूठे भास्कर को 
रिझा कर, मना कर 
और फिर सजा कर,
उभरे 
रश्मि पुंज को तुम्हें नित्य प्रति 
अर्पित जो करता हूँ।

मैं, एक अदना सा
चंचल चकोर कतरा जो हूँ।

रामासुंदरम - आगरा (उत्तर प्रदेश)

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