अंकुरण - कविता - असीम चक्रवर्ती

सूरज 
मेघों के संग
लुका-छिपी खेल रहा था,
देखते ही देखते
बर्षा की बूँदें झर झर
टपकने लगीं।

माटी की सोंधी महक
फैल गई चारों ओर 
वातावरण में।
बग़ीचे में उगे नन्हे पौधे से 
पहला परिचय,
झूम उठे कोमल पत्ते।

मेरा मन भी सपनों में 
डूब गया उसे देखकर।
पल पल बढ़ते जाएँगे
और रूप लेगा एक विशालकाय पेड़ का।
फल फूलों से भर जाएगा
सारा उपवन।

खूब खाएँगे 
परिवार व समाज के लोग।
फिर बेच कर अर्थ लाभ।

मैंने उम्मीदों के आँगन में
आशा के बीज बोए,
सर्वार्थ लोलुपता से संरक्षित बीज
पर्यावरण को बचाने हेतु
शुद्ध वायु तो ज़रूर देगी।

आज शहरों में हवा महँगी
हवा बनाने वाली मशीनों का अभाव
ज़िन्दगी के सामने।

क्या आप भी 
एक बीज बो सकते
उम्मीदों के माटी में
इन्सानियत का बीज
मानवता को बचाने के लिए।

हो सके तो 
उगाइए ना!
बहुत परेशान हैं
इन्सान आज।
लोग आदमी जनता मानव 
सब के सब।
भटक कर अँधेरे मरूभूमि की ओर 
मानवता का शिकार करने
हैवानियत का ख़ंजर लिए।

हो सके तो 
दिल के किसी कोने में सही
एक बीज छोड़ दें 
अंकुरित होने के लिए।
पर्यावरण बचेगा
जीव जगत सब के सब।।

असीम चक्रवर्ती - पूर्णिया (बिहार)

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