छवि (भाग २) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(२)
प्रलय क्षीर सागर में मचता, शयन करे गोविंद ज्यों।
सृष्टि-सृजन करते हैं ब्रह्मा, बैठ-क्रोड़ अरविंद ज्यों।।
जड़-चेतन का यही समन्वय, सृष्टि-सृजन का मूल है।
पूरक नहीं एक-दूजे के, यदि बोलूँ तो भूल है।।

आग पत्थरों में होती है, उड़ती जल से वाष्प है।
भूकंप धरा पे आती है, सूरज में भी ताप है।।
कभी सुसज्जित हो जाती है, इंद्रधनुष आकाश में।
कीड़े स्वयं पनप जाते हैं, गोबर, कचड़े लाश में।।

कई साधकों का कहना है, परमेश्वर साकार हैं।
कइयों का कहना है ईश्वर, आलोक रश्मि धार हैं।।
जड़-चेतन की लीला जग में, महती अपरम्पार है।
समझ सका है इसे न कोई, जादुई चमत्कार है।।

जड़-चेतन के बीच आज तक, खाई एक विशाल है।
पट जाएगी आगे चलकर, कहता उन्नत काल है।।
एक ब्रह्म सत्ता हैं दोनों, स्थितियाँ यूँ असमान हैं।
जड़ काया है आत्मा चेतन, जग को यह संज्ञान है।।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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