जीवन उत्सव है - आलेख - ब्रह्माकुमारी मधुमिता "सृष्टि"

जीवन सर्वशक्तिमान परमात्मा का दिया हुआ ख़ूबसूरत वरदान है।
ये विश्व एक रंगमंच है जिस पर हम आत्माएँ अवतरित होकर इस विश्व नाटक में जिसे जो रॉल मिला है उस भूमिका को पात्र बनकर निभाते हैं।
इस जीवन रूपी नाटक को समझने के लिए हम किसी नाटक को देखें तो हमें ये एहसास होगा की नाटक का हर पात्र ये समझ रहा है की, मुझे अपनी भूमिका बहुत अच्छे से निभानी है।
इसी बात को अगर हम अपने जीवन में उतार लें तो जीवन की सारी परेशानी ही दूर हो जाएगी।

वो सर्वशक्तिमान परमात्मा जो हम सभी आत्माओं का पिता है, उसने इस विश्व रूपी रंग-मंच पर हम बच्चों को उनके द्वारा बनाये गए नाटक को खेलने के लिए भेजा है। नाटक समाप्त होने पर फिर हम अपने पिता के पास पहुँचेंगे। जिसे हमारे हर एक रोल की जानकारी है।
पर हम बच्चे अपने रोल में इतना समा जाते हैं कि हमें ये याद ही नहीं रहता की हमें क्या करना है? हम स्वयं को आत्मा नहीं ये नश्वर शरीर समझ लेते हैं। शरीर समझते ही शरीर की ज़रूरतें, इसकी पहचान, इसका रंग-रूप, कद-काठी, लिंग, जात-पात, धर्म, सम्प्रदाय, में बट कर उपरवाले के बनाए गए नाटक को अलग मोड़ दे देते हैं। आत्मिक स्मृति के खोते ही आत्मिक गुण भी हमारे अंदर ही दब जाते हैं। फिर आरम्भ होता है तांडव देह और उसके विकारों का, काम क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, मोह और अहंकार।
इन विकारों के वशीभूत होकर मनुष्य अपने मानवीय गुणों को भुला बैठता है।
फिर अपने दुर्भाग्य का ज़िम्मेदार बताता है परमात्मा को। कितनी शर्मनाक है ये बात?

अब समझते हैं आत्मिक स्मृति और उसके फ़ायदे:
१. आत्मिक स्मृति विनाशी शरीर के नष्ट होने का अर्थात मृत्यु के भय को समाप्त कर देती है।
२. शारीरिक मोह और भेद-भाव नहीं रहता।
३. शरीर और उसके द्वारा प्राप्त साधनों के प्रति आकर्षण नहीं रहता, जिस से अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या, काम जैसे विकारों से मनुष्य स्वतः ही छूट जाता है।
४. जब आत्मिक स्मृति है तो हर आत्मा भाई-भाई है।
५. सभी एक ही परमपिता की संतान हैं, तो धार्मिक भेद-भाव भी समाप्त हो जाता है।

जब आत्मा इन जाल रूपी विकारों से मुक्त होती है तो आत्मिक गुणों की स्मृति पुनः लौट आती है और आत्मा स्वयं को एक अभिनेता या अभिनेत्री समझ कर अपना पार्ट बजाने लगती है। अपने किरदार को कितना अच्छा बनाया जाए इस पर ध्यान केंद्रित हो जाता है। आत्मा को पता है प्रकृति की बनाई हर रचना का स्वभाव है देना, जैसे - पाँचों तत्व, (आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु)
पेड़-पौधे, सूरज, चन्द्रमा, नदी, सागर, सभी हम मनुष्यों को देते हैं। हमसे कुछ लेते नहीं। सूर्य प्रकाश और गर्मी देता है, चन्द्रमा रौशनी और शीतलता देती है, नदी हमें जल तथा जलीय जीवों को आवास देती है, अग्नि हमें गर्मी और भोजन बनाने में हमारी मदद करती है, पेड़ हमें फल, लकड़ियाँ और छाँव देती है। सिवाय मनुष्य के प्रकृति की हर रचना अपना सर्वश्रेठ किरदार निभा रही है।

अब सोचने की आवश्यकता है की, हम मनुष्य जो अपने को कुदरत की सबसे अनमोल रचना समझते हैं, क्या वो इतना स्वार्थी है की सिर्फ़ और सिर्फ़ लेने की सोचे, इतना ही नहीं लेने के बाद भी प्रकृति को नुकसान पहुँचाने में भी बाज नहीं आते। क्या यही हमारा किरदार है?
नहीं, हम मानव हैं परमात्मा की संतान, हमारा स्वधर्म हैं शांति, पवित्रता, प्रेम, सहयोग, सम्मान देना।
अगर हम सभी एक दूसरे को आत्मिक दृष्टि से देखें और स्वयं को परमात्मा की संतान समझ कर उनके ही अनुरूप आचरण करें तो संसार में कष्ट और पीड़ा नाम की कोई चीज़ ही नहीं राह जाएगा।
रह जाएगा तो केवल प्रेम, स्नेह, आदर, सम्मान, सहयोग जिसके फलस्वरूप हमारे जीवन का हर पल उत्सव बन जाएगा।
बाह्य आडम्बरों से और बाह्य उत्सवों से मुक्त होकर आएँ हम सब अपने आत्मिक गुणों से अपने जीवन को उत्सव बनाएँ।

ब्रह्माकुमारी मधुमिता "सृष्टि" - पूर्णिया (बिहार)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos