प्रभात पांडे - कानपुर (उत्तर प्रदेश)
यह कैसा धुआँ है - कविता - प्रभात पांडे
सोमवार, मई 17, 2021
लरज़ती लौ चरागों की
यही संदेश देती है,
अर्पण चाहत बन जाए
तो मन अभिलाषी होता है।
बदलते चेहरे की फ़ितरत से
क्यों हैरान है कैमरा,
जग में कोई नहीं ऐसा
जो न गुमराह होता है।
भरोसा उगता ढलता है,
हर एक की साँसों से,
तन मरता है एक बार
आज, ज़मीर सौ सौ बार मरता है।
उसी को मारना, फिर कल उसे ख़ुदा कहना,
न जाने किसके इशारे से
ये वक़्त चलता है।
नदी, झीलें, समुन्दर, खून इन्सानों ने पी डाले,
बचा औरों की नज़रों से
वो अपराध करता है।
आज, जीवन की पगडंडी पर
सत चिंतन हो नहीं पाता,
तृष्णा का तर्पण करने पर ही
तन मन काशी होता है।
'प्रभात' कैसी है यह मानवता
जिसमें मानवता का नाम नहीं है,
होती बड़ी बड़ी बातें,
पर बातों का दाम नहीं है।
मज़हब के उसूलों का उड़ाता है वह मज़ाक़,
डंके की चोट पर कहता, भगवान नहीं है।
देखो नफ़रत की दीवारें, कितनी ऊँची उठ गईं,
घृणा द्धेष की ईंटे, आज मज़बूती से जम गईं।
खोटे ही अपने नाम की शोहरत पे तुले हैं,
अच्छों को अपने इल्म का अभिमान नहीं है।
कहीं भूखा है तन कोई, कहीं भूख तन की है,
पुते हैं सबके चेहरे, यह कैसा धुआँ है।
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