मैं कहीं भी होता हूँ - कविता - सुरेंद्र प्रजापति

मैं कभी भी, कहीं भी होता हूँ,
ज़िम्मेवारियों के साथ होता हूँ।
बच्चों की ज़रूरतें, गृहस्थी का बोझ,
चाहे जहाँ भी होता हूँ,
उत्तरदायित्वों के साथ होता हूँ।    

पसीना बहाते, खेतों में।
गीत गाते, खलिहानों में।
सरिता के तट पर,
या उदासी लिये, रेगिस्तानों में।

आश्चर्य ये कि... वहाँ
जीवन के तमाम लिपि के बावजूद 
कविता नहीं होती जैसे...
राम राज्याभिषेक के समय, सीता नहीं होती।

हाँ उस वक़्त...
जब, मैं भी नहीं होता हूँ, वहाँ पर
कहीं भी नहीं, 
न घर, न बाहर, गाँव, न नगर,
जब मैं कविता लिखता हूँ।

एक एक शब्दों से लड़ता, झगड़ता,
जीवन के अर्थ ढूँढता,
कलाबाज़ियाँ करता, कभी पिटता।
मैं यदा, कदा मुस्कुरा पड़ता हूँ।

जब मैं कविता के शूक्ष्म तारों को छूता  
कहीं और ही होता हूँ,
अक्षरों की गलबाहीं करता, 
अभ्यस्त होता हूँ।

एक आदत की फ़ितरत में दम भरता
मैं जाना चाहता हूँ...
एक ही समय में अंतरिक्ष तक, विचित्र ग्रहों पर,
सागर की अनन्त गहराइयों में,
ज्वालामुखी के वृहत खाइयों में।

फिर मैं अपने में लौटता हूँ,
एक साथ सबमें लौटता हूँ।
जैसे लाल, नीले ग्रहों से छूकर लौटती है, 
जीवन की तरंग, 
कई कई सम्भावनाओं के संग।

सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)

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