आत्मीयता - कविता - बृज उमराव

अपनेपन का सरस स्वाद,
जो अपना वह ही जाने।
मंज़िल की मध्यान्तर राहें,
जो गुज़रे वह ही जाने।।

आत्मीय ख़ुशी का वह आलम,
दिल को जो छू जाती है।
अहसास प्यार स्नेह सदा,
संबल सी बन जाती है।।

आत्मीय डोर से बन्धी प्रीति,
जुदा कभी न होती है।
अथाह उमंगें सागर सी,
इनमें गहराई होती है।।

अनजान राह में एक अकेला,
पथिक सफ़र जब करता है।
कोई अपना यदि फ़िक्र करे,
ह्रदय उमंगें भरता है।।

आत्मीय तरंगें अपनों की,
संचार क्रिया से जुड़ती हैं।
बात वहाँ वह दूर करे,
भावना प्रेम की मिलती है।।

दिल बाग़-बाग़ हो जाता है,
अपनों की कुशल ख़बर पाकर।
ज्यों तृप्त एक तोता होता,
मैना के संग में रहकर।।

दिल के घाव नहीं भरते,
जब अपना कोई चोट करे।
टीस जिगर में उठती है,
जब शब्द बाण से घाव करे।।

आत्मीय प्रेम की ये कश्ती,
दरिया पार कराती है। 
कैसी भी हो राह कटीली,
सुगम सदा बन जाती है।। 

बृज उमराव - कानपुर (उत्तर प्रदेश)

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