वो भी क्या दिन थे,
जब कांच की शीशी लोग माँगा करते थे,
मिट्टी का तेल भर के बत्ती से उजाला करते थे।
नमक, मिर्च, तेल ,आटा, उधार माँग ले जाते थे,
बड़ी ईमानदारी से फिर वापस दे जाते थे।
ईख के सूखे पत्तों पर चिंगारी माँग लाते थे,
बिना माचिस के ही चूल्हे की इंधन जलाते थे।
वो भी क्या दिन थे,
जब घर का राशन ख़त्म हो जाता था,
पड़ोसी से कुंटल में अनाज मिल जाता था।
फ़सल कटने पर वापस कर आते थे,
मन में सहयोग की भावना जगमगाते थे।
भारी-भरकम छप्पर सब मिलकर उठाते थे,
आग लगने पर बिना बुलाए ही सब बुझाते थे।
वो भी क्या दिन थे,
जब दुःख में पड़ोसी हमारे बच्चों को देखा करते थे,
रात को उठ-उठकर हमारा घर भी पहरा करते थे।
चौकी, कुर्सी, तकिया, बिछावन लोग माँगकर ले जाते थे,
बेटी की शादी में लाखों के ना शामियाने आते थे।
जड़ी बूटी से ही रोग ठीक हो जाया करते थे,
बिना काजू-बादाम के लोग पहलवान हो जाया करते थे।
नूरफातिमा खातून "नूरी" - कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)