मैं क्या करूँ - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

मैं मन की बात मानू 
या अंतर्मन की
ऊँगली पकड़ कर चलूँ
मन तो कहता है
सारा जग मेरा है,
मैं चाहूँ जो कुछ भी
कर लूँ,
पर अंतर्मन बोले,
नहीं मन की नहीं
दिल की
बात सुन लूँ।
मन तो कहे
मन के लड्डू खाले
पर अंतर्मन बोले,
बिना  मेहनत के
कैसे झोली में डाले।
मन तो लोगों को
कर्तव्य विहीन कर देता है।
पर अंतर्मन सब कुछ
सह लेता है।
वेद पुराण भी अंतर्मन का
समर्थन करते हैं 
कर्तव्य परायणता
का पाठ सिखाते हैं,
जीवन की सच्चाई यही है
की बिना पसीना बहे
कोई भी रंग न भाते हैं।
मन की
बात मानू तो नए ज़माने में
ढल कर कर लूँ मनमानी,
अरे नादान जग हँसेगा
और उतर जाएगा
आवरु का पानी।
इसीलिए मैं कहता हूँ
परमार्थ कर ले,
नहीं तो तन से हिलूँ,
क्या करुँ मन की बात मानू
या अंतर्मन की ऊँगली पकड़
कर चलूँ।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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