हे राम - कविता - डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा"

हे राम तुम आ जाओ ना!
त्रेता से कलि है विषम बहुत,
आकर मुक्त कराओ ना!
बन्धन मे पड़ी लाखों सीताएँ,
रावण से कहीं दुस्साहस वाले रावण।
अब तो खड़े निज देश में,
असंख्य राक्षस छिपे नर वेश में।
हे राम! तुम आ जाओ ना।
पड़ने न दो विश्वास फीका,
आँखों में संसार के।
इक बार फिर दिखला दो प्रभु,
सत्य सर्वोपरि सदा।
नर ही नरबलि दे रहा,
रक्षक भक्षक बन फिर रहा।
मर्यादायें खंडित हो रही,
रावण दरबार भी शर्मा रहा।
क्यों अब भी रुके हो राम,
अब तो धरा पर आओ ना।
धरती भी अब काँप रही,
देख निज पुत्रों की दुर्दशा।
जल अरु पवन भी रो रहे,
गंगा की भी आँखें भर आई हैं।
मंदिर बने व्यापार-गृह,
साधु व्यापारी बन चले।
न मार्ग दिखलाई पड़े,
भटकाव सा है राह में।
हे राम तुम आ जाओ ना।

डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा" - दिल्ली

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