औरत - कविता - नृपेंद्र शर्मा "सागर"

मैं हमेशा औरों में ही रत हूँ,
हाँ हाँ मैं एक औरत हूँ।
मैं हमेशा प्यार वात्सल्य एवं ममता लुटाती हूँ।
हाँ हाँ मैं एक औरत हूँ।।

मैं बेटी हूँ, बहन हूँ, पत्नी हूँ, मैं माँ हूँ।
मैं सृष्टि करता हूँ, मैं जन्मदात्री हूँ।
लेकिन मैं ख़ुद के अस्तित्व से ही विरत हूँ।
हाँ हाँ मैं एक औरत हूँ।।

मेरे बिना कल्पना भी नहीं है संसार की।
मैं ही तो धुरी हूँ हर तरह के प्यार की।
मैं त्याग और बलिदान की मूरत हूँ।
हाँ हाँ मैं एक औरत हूँ।।

मैं औरो में रत हूँ, सबके लिए जीती हूँ।
अपने हर ग़म को अमृत मान कर पीती हूँ।
कभी पति का मान कभी पिता का अभिमान।
कभी बेटे के सुख में निहित हूँ।
हाँ हाँ मैं एक औरत हूँ।।

क्या कोई समझ पाएगा औरत होने का सही अर्थ।
क्यों कर लेती है वह निज जीवन को व्यर्थ।
क्यों वह सदा औरों में रत है।
क्योंकि वह जननी है, वह एक माँ है।
हाँ हाँ वह एक औरत है।।

नृपेंद्र शर्मा "सागर" - मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)

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