दहेज एक अभिशाप - लेख - गुड़िया सिंह

दहेज एक ऐसी प्रथा है, जिसे प्रथा का नाम न देकर अभिशाप कहना ज़्यादा जायज़ जान पड़ता है, हमारे भारत जैसे देश में जहाँ कितनी ही विभूतियों का जन्म हुआ, कितनी ही महान स्त्रियों ने अपनी कार्य कुशलता से राष्ट्रीय व अंतरास्ट्रीय लेबल पर अपना लोहा मनवाया है।
आज इस आधुनिक युग मे वो पुरुषों के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चल रही है और अपना नाम रौशन कर रही है। 
फिर भी बहुत हद तक स्त्रियों को लाचार और कमज़ोर समझा जाता है, इसकी एकमात्र वजह जो है वो दहेज है।

जो लड़कियां संम्पन्न परिवार में जन्म लेती है और जिनके पिता के पास ढेर सारी दौलत है, उन्ही लड़कियों का जीवन इस अभिशाप से कुछ हद तक बच सका है, नही तो सभी  का जीवन इस दहेज ने अभिशप्त कर रखा है।
आज इस महंगाई के दौर में बेटी के जन्म से लोग घबराते है और कितनी ही निर्दोष, निरपराध, बेटियों को जन्म के पहले ही मार दिया जाता है।

आज हर ग़रीब ये नही चाहता कि उसके घर बेटी का जन्म हो, और अगर जन्म हो भी जाता है तो उस मासूम का जीवन बचपन से ही प्रताड़ना और समझौते में गुज़रता है।
पिता उन्हें ऊँची शिक्षा देने से कतराता है कि पढ़ लिख जाएगी तो शादी के लिए इसके अनुसार लड़का ढूँढना पड़ेगा और फिर लड़के वालो की तरफ़ से विवाह के लिए दहेज के नाम पर बड़ी रक़म, आभूषण और न जाने किन-किन चीजो की माँग की जाएगी जिसे वह देने में असमर्थ होगा।

ग़रीब घर मे जन्मी हर लड़की जन्म से ही इस कुप्रथा की 
शिकार हो जाती है और उन्हें मायके, ससुराल में ताउम्र ही एक समझौते की ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ती है।

दहेज ने समाज के हर वर्ग पर अपनी छाप छोड़ी है और इससे कोई भी अछूता नही है।
जो लोग अपनी बेटी को दहेज की वज़ह से बोझ समझते है वही लोग अपने बेटो के विवाह में दहेज की माँग करते है। जब तक लोग दहेज ना लेने का संकल्प नही कर लेते तब तक यह कुप्रथा ऐसे ही फलती-फूलती रहेगी और अपनी जड़े और भी मज़बूत कर लेगी, और समाज के इस अभिशाप से सदैव ही एक बेटी का जीवन त्रस्त रहेगा।

गुड़िया सिंह - भोजपुर, आरा (बिहार)

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