सपना - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

राधा आज मैंने
एक सपना देखा
तुम दुल्हन मेरी
मैं दूल्हा तेरा,
सुंदरता की देवी तुम
सजी संवरी सुहागन
सजनी को सखियों ने आ घेरा।
देख के सूरत तेरी मैं खिल
गया ऐसे,
गरीब को
मिल गया हो मोती जैसे।
पूरव पश्चिम उत्तर दक्षिण
गगन धरा
पर फैली
खुशी 
कण कण,
उठा के पलकें तुम देखती
मुस्करा जाती हो
मन ही मन।
देख के
रूप सजनी
लगता है रहूँ देखता
गिरता न पलक मेरा,
आपका खनकता 
मधुर  स्वर लगे
ज्यों बाजे शहनाई,
सखियों की चुलबुल
में होती है,
राधा
तेरी विदाई।
चले थे हम मोहब्बत की
मुराद लिए,
रब को कब मंज़ूर
खुशी थी
खड़े डगर में
बाबुल
कटार लिये।
तुमको खींचा 
साथ मेरे, और क्रोधित हो
चिल्लाए कि
मारो ऐसे दीवानो को,
भाला कटारी और पत्थर 
मारो सबक सिखो दो
परवाने को।
मेरा बहता खून देख
तुम रोई और मेरे
जीवन की मांगी दुहाई,
पर समाज की निर्दयी 
हड़कंप ने की
कब की तेरी सुनवाई।
विधि का खेल अजब है सजनी
इधर टूटती साँस मेरी
उधर टूट गया साहस तेरा,
राधा आज मैंने एक सपना देखा
तुम दुल्हन मेरी 
मैं दूल्हा तेरा।
सुंदरता कि देवी संजी संवरी,
सुहागन सजनी को
सखियों ने आ घेरा।
तुम दुल्हन, मेरी
मैं दुल्हा तेरा।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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