कर्मवीर का सौदा - कविता - कर्मवीर सिरोवा

मंज़र कोई पंख फैलाये सुब्ह बुझाने आया है,
क़द्रदान नही रहे कविताई के अब लगता है,
मेरी कलम का बुढ़ापा और बज़्म में स्यापा आया है।
सोचता हूँ कि संगदिल अब ना रहे या शायद,
कागज़ पर अब स्याह-ओ-तम छाया है।
वाह वाही बिक रही है चेहरे की खूबसूरती ओ नाम देखकर,
गो राजनीति हो या हो कोई मुशायरा,
ख़बर ख़बरों में हैं भेड़ चाल का चलन आया है।
नकली दिखता हैं हुजूम-ए-गोश अब या यूँ कहूँ,
गूँगें हैं लब-ओ-काग़ज़ मेरे, चश्मों में फव्वारा आया है।
बेच रहा था मैं सौदा अपना औने पौने भावों में,
ढूँढ़ रहा हूँ सच्चें कान के परदे, निःस्वार्थ आँखों की तालियाँ,
कविताई की भूख फ़क़त इतनी सी हैं ठीक हो जाएँ स्वार्थी दाद का फोड़ा श्रोताओं की रहमतों से, 
पर ख्वाहिशों का दर बेज़ार हैं,
रह गये बेनिशां भूखें कानों के हर स्वार्थी कोने,
क्योंकि छाई है घटा कुंठन की,
फैली है वाह वाही झूठी शानो-शौकत की,
मानवीय रिश्तों की सोहबत फ़ीकी निकली,
कविताई को बज़्म में सरेआम रोना आया है।
चेले भी हो गये अदीब-ओ-फ़नकार,
इल्म का थेला वहाँ से भी भरकर आया है।
नई पुश्त के भटकाव पर अफ़सोस करता हुँ,
क्योंकि ठहाकों का बाज़ार, रंगत-ए-हुरूफ़ इन्होंने चलचित्र पर परोसी अश्लीलता और गालियों में पाया हैं।
अब मर्म होता हैं कि कर्मवीर ने अपनी कविताई का सौदा
गलत बाज़ार-ओ-जीस्त में लगाया हैं...

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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