विरह की घड़ियाँ बड़ी हैं
श्याम तुम आ जाओ ना!
चरणों में तेरे शीश रखकर
करूँ बंद निज दोनों नयन।
बस बाँसुरी बजती रहे बस
मैं बोलूँ नहीं मुख से बयन।
जीवन समर्पित कर दिया है
अब तुम ही पार लगाओ ना!
लखूँ बस तुम्हारे चरण प्रभु
धर दो मेरे सिर हाथ कृष्णा।
खोल दो मेरे ज्ञान चक्षु अब
जाए नहीं रह कोई तृष्णा।
विरह की घड़ियाँ बड़ी हैं
श्याम तुम आ जाओ ना!
है अजब दलदल सी दुनिया
फँसता यहाँ फँसता ही जाता।
माया फँसाती तृष्णा के संग
मानव बनाता उससे ही नाता।
लगता जगत में मन नहीं
मुझे पार करते जाओ ना!
डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा" - दिल्ली