कितने पेड़-पहाड़ों को
निशदिन हाथों से निगला है,
हे मानव क्यों विकास के नाम
अपनी ही धरा को निगला है,
हम सब-मानव उसकी रज मे
पलकर इतने बड़े हुए,
फिर क्यों इतनी जल्दी में
ही अपनी माँ से दूर हुए,
हम नहीं कभी जो हो सकते
उसकी चिंता से युक्त हुए,
हम भूल गए अपने चिंतन को
क्यों नश्वर चिंतन से युक्त।
कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी - सहआदतगंज, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)