जलेबी - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

मेरी शक्ल सूरत ही
मत देखिए,
मेरे अंदर भी झाँकिए।
माना कि उलझा उलझा 
है तन मेरा, 
पर इसकी चिंता मैं क्यों करुँ?
मैं अपना स्वभाव नहीं छोड़ती, 
अपनी व्यथा का रोना नहीं रोती
शांत भाव से मिठास बाँटती हूँ,
खौलते तेल में जाकर भी
अपना स्वभाव नहीं बदलती हूँ।
सीख देने की कोशिश
लगातार करती हूँ,
बार बार जलती हूँ
परंतु अपना मीठापन
कब फेंकती हूँ?
कम से कम मुझसे
कुछ तो सीखिए,
कष्ट पीड़ा सहकर भी
बस! मिठास ही बाँटिए।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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