हे! स्त्री - कविता - प्रेम प्रकाश बोहरा

कठपुतली हो तुम अपने घर की,
ना प्यार मिला ना सम्मान
सज़ा मिली तुम्हे नफ़रत की।

मत भूल अपराध सहना भी अपराध से कम नहीं,
मत भूल अपराधी को अपराधी ही तूने बनाया है।
बन बैठी थी तू उसके आँगन की तुलसी,
औकात नहीं थी कि काँटे भी उगे उसके आँगन मैं।

नारी है तू, प्यार कर,
प्यार के बदले प्यार कर,
कर नफ़रत के बदले नफ़रत।
नारी है तू, अर्ध नार है तू।

ना बन अपने ही घर में क़ैदी,
ये झुँझलाहट, ये सहनशीलता
शुरुआत है तुम्हारी बर्बादी।
दिखा दे अपना हौसला,
की क्या कर सकती है किरण बेदी।

हुआ है अपराध 
किया है अपराध
सह सह कर अपराध।
बनाया है भागीदार अपराधी को अपराध करने में।

हत्या हुई थी इंदिरा की, उसने देश चलाया।
हत्या हुई थी गांधी की, उसने देश बनाया।
नारी है तू, अर्धनार है तू।
फिर तू क्यूँ घर में डुबकी है।

टैगोर की गीतांजलि है तू,
बच्चन की मधुशाला।
क्यों बैठी है अपने ही घर में बैठ के दुशाला।
बन झाँसी की मणिकर्णिका,
कर दे संहार दहेजगारो का।

नारी है तू, अर्ध नार है तू,
भाग है आधा नार है तू।
फिर क्यों अपने ही भाग का अपराध सह रही है।

प्रेम प्रकाश बोहरा - किशनगढ़, अजमेर (राजस्थान)

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