प्रकृति - गीत - संजय राजभर "समित"

हरे-हरे औ' पीले-पीले,
उपवन सारा अलंकृत है।
वृंत-वृंत पर फूल खिले हैं,
और समीर सुगंधित है।।

मस्त मगन हो बैठी कोयल,
मधुरिम कंठ अलाप रही।
गूँज रहे  भ्रमरों  के गूँजन,
ताल मयूरा थाप रही।।

वसंत ऋतु की मादकता में,
चर-अचर सभी पुलकित है।
वृंत-वृंत पर फूल खिले हैं,
और समीर सुगंधित है।।
    
गुनगुने धूप से नहलाती,
किरणें प्यारी-प्यारी हैं।
शीतल मंद हवाओं में अब,
खिली-खिली सुकुमारी है। 

उठी हुई उन्मादी लहरें,
नस-नस में संचारित है।
वृंत-वृंत पर फूल खिले हैं,
और समीर सुगंधित है।।

ग्वाल बाल सब खेल रहे हैं,
अँगड़ाई भरे गवैया।
ढोल के थाप बजे चौपाल,
नव कवि लिख रहे सवैया। 

सौंदर्यबोध जिसको भी है,
वही सदा आनंदित है।
वृंत-वृंत पर फूल खिले हैं,
और समीर सुगंधित है।।

संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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