बहुत उकता चुका हूँ मैं - ग़ज़ल - मनजीत भोला

शजर पर मार कर पत्थर बहुत पछता चुका हूँ मैं,
समर के साथ इक चिड़िया ज़मीं पे पा चुका हूँ मैं।

अमन का हाथ में परचम दिखाई क्यों नहीं देता,
ज़मीनें थी हरी पर लाल अब करवा चुका हूँ मैं।

सुनाते हो फ़साने तुम, फ़साने हैं ये लासानी,
मगर मालूम नहीं तुमको यहाँ से जा चुका हूँ मैं।

परोसो मत फ़क़त नारे बताओ है कहाँ रोटी,
लफ़ाज़ी दावतों से तो बहुत उकता चुका हूँ मै।

मशालें गर सियासत दे तुम्हें, तुम याद ये रखना,
जलाकर बस्तियाँ अपनी सड़क पे आ चुका हूँ मैं।

बचा है क्या मियाँ हलकू तुम्हारे खेत में बाकी,
उगाए थे चने तुमने मगर भुनवा चुका हूँ मैं।

बुरे वक़्तों में पानी भी नहीं मिलना मुझे 'भोला',
पड़ोसी के दुखों पे गर ठहाके ला चुका हूँ मैं।

मनजीत भोला - कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

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