दिन ढला, शाम ढली हर तरफ़ चिराग जले
चले भी आओ सनम दिल जले, दिमाग जले।।
जिगर के खून से जिसे वर्षों मैंने सींचा है
वो साख-साख जले, गुल जले वो बाग़ जले।
हुई है रोशनी हरसू हुए उजाले पर
आशियाने में मेरे मुद्दत हुए चिराग जले।
ज़रा सा चैन भी मिलता तो कुछ बयाँ करते
मगर यहाँ मेरे दिल का दाग़-दाग़ जले।
पारो शैवलिनी - चितरंजन (पश्चिम बंगाल)