यह कविता प्रथम शिक्षिका सावित्रीबाई फुले को समर्पित है।
मैं जान चुकी हूँ ज्ञान की ताकत,
ज्ञान-तप में अब मुझे तपने दो।
अंधकार मिटाने भारत भूमि से,
काँटों की राह मुझे चलने दो।
ज्योतिराव फुले की दिली ख़्वाहिश,
हरहाल में पूर्ण मुझे करने दो।
नर के समान नारी को भी लाने,
काँटों की राह मुझे चलने दो।
हमें पढ़ने का अधिकार क्यों नहीं?
नारी में शिक्षाई अलख जगने दो।
कुरीतियों को मिटाने के लिए,
काँटों की राह मुझे चलने दो।
अंधी सोच को दो अब विराम,
गली-गली पाठशाला खुलने दो।
दिलोदिमाग से ठान लिया है,
काँटों की राह मुझे चलने दो।
पशुतुल्य जीवन जिएँ क्यों हम?
सामाजिक क्रांति मुझे करने दो।
सोई हुई जमात जगाने के लिए,
काँटों की राह मुझे चलने दो।
बहुत अपमान हम सह चुके हैं,
आत्मसम्मान दिलों में जगने दो।
संघर्षभरी पीड़ाएँ सारी झेलकर,
काँटों की राह मुझे चलने दो।
इंसान जकड़ा साज़िशों के जाले में,
साज़िशों का पर्दाफ़ाश करने दो।
असमानताई दीवारें गिराकर के,
काँटों की राह मुझे चलने दो।
मेरा जीना भी तब सफल होगा,
दुःखी दरिद्र को तुम बढ़ने दो।
ज्ञान-विज्ञान ज्योति जले यहाँ,
काँटों की राह मुझे चलने दो।
कानाराम पारीक "कल्याण" - साँचौर, जालोर (राजस्थान)