बसंत - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

रुसवाई का
छोड़ो ख़्याल
री सजनी
बसंत ऋतु जो आयी।
मद मस्त सुगंध ले
आम बोराये
ली रब ने ली अंगड़ाई।
फूला काँस
फूल गए सरसों पलास।
डाल से गिरता
पात यूँ कहता
एक बात जो ख़ास।
जुदा हुए गर मेरे जैसे
तो ढूँढेगी 
मिलने कि आस।
प्रिय रहो झूमती
गेंहू कि वालों जैसी
और मन की उडेलो हास।
कहीं छर छर मेघ बरसे,
कहीं धूप छाँव ने खेल मचायी,
रूषवायी का छोड़ो ख़्याल,
री सजनी बसंत ऋतु जो आयी।
देख खेत
फूली सरसो को
तेरी यादों ने
हमें दबोचा।
जब हेतु लगाया था
वर्षों दूर रहोगी
हमने कभी न सोचा
"ब" से बनी बात बिगड़े न
"स" से संग रहो चाहे
पड़े विपत्ति कितनी
"न" की बिंदी से झूठ मूठ न कहना
"त" तन हो दूर
पर मन मे
एक रहे साजन साजनी।
देख ऋतु
मन के विनोद ने
उकसाया।
सोयी यादें फिर टकरायी
री सजनी बसंत ऋतु जो आयी।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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