बड़ा भाई - कविता - प्रवीन "पथिक"

बहुतों  से  मिला  प्यार  मुझे,
खुशियाँ भी मिली हर बार मुझे।
खाई साथ जीने की कसमें,
मानने को; सब तैयार मुझे।
एक आया तूफाँ मेरे जीवन पे,
सब नष्ट हुआ जो था हासिल।
ठुकरा दिया सभी ने मुझको,
बोले, नहीं रहा तू मेरे क़ाबिल।
एक शक़्स  उस  दुर्दिन में,
मेरे कँधों पर हाथ लगाई।
जानते  हो वह  था कौन?
वह  था  मेरा  बड़ा  भाई!
बड़े भाई का स्नेह-कर जग में,
कोई   नहीं  चुका  पाया  है।
मिला है जिसे स्नेह भाई का,
वह जीवन धन्य हो पाया है।
मिला  था  स्नेह  प्यारे भरत  को,
समझो; उनका जीवन धन्य हुआ।
जितना स्नेह दिया राम ने,
वैसा न  कोई अन्य  हुआ।
फिर भी जगत में भाइयों ने,
भाई  के  लिए  जान  गवांयी,
नहीं समझे, तो समझ लो प्यारे!
ऐसा  होता  है  बड़ा  भाई।
बड़ा  भाई  हर  पग-पग  पर,
मुश्किलों का सामना करता।
कष्ट  न होने  देता अनुज  को,
स्वयं  कष्टों  को  वह  हरता।
लगता  कष्ट उठाने को,
दुनिया में वह आता है।
सारे पीड़ा को  सहन कर,
किसी से कुछ न बताता है।
बड़े भाई का स्नेह किसी ने,
ना  अभी  तक  बता  पाई।
उर में स्नेह-सागर उमड़े,
ऐसा होता है  बड़ा भाई।
पर! दुनिया में मिलते और भी भाई,
जो लेे लेते भाई की जानें।
गला घोंट देते हैं उनकी,
करने को पूरा अपनी अरमानें।
थोड़े-से धन के लालच में,
तोड़ देते  वे  भातृत्व-प्रेम।
कर जाते कत्ल पावन रिश्ते का,
कर खण्डित वो अपनत्व-स्नेह।
लिखा तुलसी ने  मानस में,
मिले न जग में सहोदर-भाई।
कैसा भी हो  उसका विचार,
पर! अपना है न, अपना भाई।
मत टूटे ये पावन रिश्ता,
है पुरखों ने इसे बताई।
रखे बाँधकर  अपनी प्रीत से,
कहीं ख़फा न हो अपना भाई।
भाई  का भाई  से  प्रेम  रहे,
यह कहती न, अपनी जुबानी।
इस रिश्ते को मानते हैं  सभी,
यह है हकीक़त, न कि कहानी।

प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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