वह थका हारा - कविता - महेश "अनजाना"

जीवन के संघर्ष से 
लड़ लड़ कर 
थका हारा सा
मायूस होकर वह
अकेले में सोचता रहा।
कैसे लड़ी जाए ये लड़ाई।
रात भर जागता रहा।
आँखों में नींद नहीं आई।

सरहद के कई इलाकों की तरह
जीवन के कई मोड़ पर
अनहद, अनकही मुश्किलें
जो जाति, धर्म, राजनीति,
और अमीरी ग़रीबी के रूप में
पटी हुई है।
हर किसी से लड़ने की
क्षमता आम आदमी में है क्या?
सर्वजन हिताय,
बहुजन सुखाय
कहीं पे वाह वाह,
कहीं से हाय 
कोई सुखी नहीं,
सुख की चाह में
भटक रहें हैं सभी।
सत्ताधीन में बैठे विदूषक
योजनाएँ बना रहे हैं।
सपने बेचे जा रहे हैं।
पर खरीदेगा कौन?
वहाँ भी लूट मची हुई है।
अंतहीन लड़ाई चलेगी और।
सोचते सोचते सो गया वह।

महेश "अनजाना" - जमालपुर (बिहार)

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