इस धरती के ऊपर
आसमान की छानी है।
पेड़-पौधे अपने में
तल्लीन दिखते हैं।
अब तो बरगद समकालीन-
कथा लिखते हैं।।
रसाल दिखते जैसे कि
बड़े औघड़ दानी हैं।
झरने से मीठा-मीठा
संगीत फूटता।
शहरों में बसने वालों
का गाँव छूटता।।
ऐसे दिखते हैं पर्वत
ज्यों ऋषि-मुनि-ज्ञानी हैं।
कल-कल बहती नदी
तय करें दुर्गम रस्ता।
है बाँध रहा बचपन
जबकि स्कूल का बस्ता।।
सरकारी कर्मी का उठता
दाना-पानी है।
अविनाश ब्यौहार - जबलपुर (मध्य प्रदेश)