अपनों का साथ - कविता - पुनेश समदर्शी

साथ अगर हो अपनों का, ये सौगातें क्या कम हैं,
खुशियाँ दूनीं हो जातीं, साथ में तुम और हम हैं।


रिश्ता लम्बा रखना हो तो, सच ही सच तुम बोलो,
दौलत आनी-जानी है, रिश्तों को ना तुम तोलो।


साथ न अपना कोई हो, दौलत अरबों-खरबों की,
क्या होगा उस दौलत का, संगत ना हो अपनों की।


चाह नहीं उस रिश्ते की, दौलत सम्मान कसौटी हो,
बंगला, गाड़ी सबकुछ हो, अपनों पर न लंगोटी हो।


दर्द मिलें चाहे कितने भी, हँसकर उनको सहता हूँ,
मेरे अपने साथ रहें, धन मद में ना वहता हूँ।


समदर्शी अरमान यही, अपने साथ रहें हरदम,
कुछ भी साथ ना जाये तेरे, जाता हूँ बुध्दं शरणं।


पुनेश समदर्शी - मारहरा, एटा (उत्तर प्रदेश)


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