ज़िंदगी - कविता - आर एस आघात

हुआ जन्म जब घर मैं आया...
खुशी मनाई घर आँगन हर्शाया...
सब अपने यूँ लगे फ़िक्र से,
घर-बाहरवालों का भी मन मुस्काया।
क्या यही है ये जिंदगी...

जब में लायक़ हुआ चलन को...
मिला दाख़िला स्कूल चला में,
मिले मुझे कुछ यारी अपने,
जिनके साथ में खेला करता।
क्या यही है ये जिंदगी...

जब मैं कुछ और बढ़ा हुआ तो,
निकल स्कूल कॉलेज चला में,
मिले वहाँ पर भी कुछ ऐसे लोग,
जिनसे मिलती हरदिन नई ऊर्जा।
क्या यही है ये जिंदगी...

कॉलेज से पढ़कर में निकल,
लगी फ़िक्र कुछ करने की,
बहुत दिनों तक यूँ ही घूमे,
आखिर मिली एक तुच्छ नौकरी।
क्या यही है ये जिंदगी...

कहते-कहते परिवारी नहीं थकते...
पुत्र बना म्हारा बालट्टर...
हमको भी कुछ समझ नहीं आया,
नातेदारों ने इक रिश्ता सुझाया,
परिवारीजनों के मन को भाया।
क्या यही है ये जिंदगी...

जब मेरे मन कुछ समझ में आता 
उलझा में परिवार में आके,
चल रही ज़िंदगी अपनी राह,
अब जिम्मेदारी में ख़ूब निभाता।
क्या यही है ये जिंदगी...

अब बच्चों भी बड़े हो गए,
अपनी राह पर खड़े हो गए...
पड़ेगा सोचना इनके बारे में,
यूँ लगी व्यर्थ की चिंता है।
क्या यही है ये जिंदगी...

कभी न सोचा अपने बारे मैं,
कट गयी जिंदगी यूँ ही विरले...
क्या ये जिंदगी अपनी है,
या रखता ख़्याल दूसरी का।
क्या यही है ये जिंदगी...

अब ना ही कोई शिक़वा है...
और ना ही कोई शिकायत है,
जैसी भी है अपनी ही है 
करनी है इसकी रखवाली।
क्या यही है ये जिंदगी...

अब मुझको नहीं रहना है,
ना मुझको अब सब सहना है,
कब तक मैं ये सहता रहुँगा,
रह गयी कुछ दिन की कहानी है।
क्या यही है ये जिंदगी...

खत्म हुआ ये जीवन अपना,
न करता कोई भी अब परवाह,
सहने को अब कुछ न बचा है 
ये खत्म हुई यूँ कहानी है।
क्या यही है ये जिंदगी...

आर एस आघात - अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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