किसान की ललकार - लेख - श्याम "राज"

तुम्हारी ज़िंदगी की डोर किसी और के हाथों में नहीं बल्कि मेरे ही हाथों में है। मैं कोई और नहीं भूमिपुत्र किसान हूँ जिसकी मेहनत पर तुम कदम रखकर आज आसमान के तारे एक पल में तोड़ कर लाने की बात करते हो और जो हकीकत है उससे तुम अनजान हो वह आज मैं तुम्हें बताता हूँ गौर से सुनना...

मैं वही भूमिपुत्र किसान हूँ, मेरे द्वारा की गई मेहनत की वजह से तुम आज तक जीवित हो। मेरे द्वारा पैदा की गई फसलों एवं साग-सब्जियों की वजह से तुम जिंदा हो और तुम्हारी जिंदगी चल रही है। मैं ही वही आदमी हूँ जो तुम्हारे लिए ना कभी जेठ की तपती दोपहर में आराम किया और ना ही दिसंबर में होने वाली कोहरे भरी सुबह और कड़कड़ाती ठंड वाली रातों को सोया।
बरसात के दिनों में खेतों में खड़ा खड़ा भीगता रहा आंधी-तूफान बहुत आई पर मैं सिर्फ तुम्हारे लिए....।

परिस्थितियां कैसी भी रही पर हर वक्त मेरे कंधों पर कुदाल और माथे पर गमछा लिए इधर-उधर दौड़ रहा... किसके लिए? कभी सोचा है तुमने? कभी चिंतन किया है तुमने? कभी अपने अंतर्मन से पूछने की कोशिश की है तुमने? नहीं ना...? तुम्हें कहां फुर्सत है मेरे बारे में सोचने के लिए... फिर भी आज मैं तुम्हें सुनाऊंगा सारी व्यथा।

आज की परिस्थितियों ने मुझे अंदर तक झगझोर कर रख दिया है जब अपने ही बेटे के हाथों लाठी से मुझे मार पड़ी... तुम ही कहते हो ना "जय जवान जय किसान"। तुमने अपने स्वार्थ के कारण ही कर दिया ना हमें आमने-सामने। कभी तुमने खेतों में काम किया या कभी तुम्हारा बेटा वर्दी पहन के बॉर्डर पर गया? नहीं ना...! तुम्हें तो सब आसानी से मिल रहा है तो तुम क्यों करोंगे खेतों में काम? क्यों जाएगा तुम्हारा बेटा बॉर्डर पर...?

मेरे हाथों की लकीरों में तुम्हारी जिंदगी का मान, अभिमान, गुमान और स्वाभिमान सब कुछ है मेरी बाजू में इतना दम है कि इस जमीन का सीना चीरकर गुलाब, गुलमोहर, सरसों के पीले फूल, गेहूं की बालियां, ज्वार, बाजरा, फल-फूल, साग-सब्जियाँ और ना जाने कैसे-कैसे हीरे, मोती और सोना उगाता हूँ ताकि तुम जीवित रह सको।

तुम तो अपनी दुनिया में व्यस्त रहते हो तुम्हें क्या पता कैसे मेरे दिन रात गुजरते हैं? सुनो मैं बताता हूँ तुम्हें...
आसमान से बातें करता तारों की सैर करता तूफानों के रथ पर सवार होकर बादलों के उस पार जाता बारिश की बूंदों से अठखेलियाँ करता वापस इस धरा पर आता मिट्टी और पानी से सने हाथों से अमृतधारा बरसाता फटी एड़ियाँ से नहीं घबराता। रखता दम इतना इन बाजूओ में पसीने से लथपथ फिर भी तुम्हारे लिए सोचता...

मेरा क्या? मेरा सौदा करने वाले सौदागर हो तुम... लेकर अनाज सस्ते में... कर गुमराह मुझको दिन-दुगुनी रात-चौगुनी तरक्की करते जा रहे हो। मैं ठहरा किसान जहाँ से चला वहीं खड़ा हूँ आज भी। लगता है तुम्हारे दिल की संवेदनाएं सूख गई है तुम्हारे सारे जज्बात मर गए हैं। लाकर मुझे इस स्थिति में तुम खिलखिला कर हँस रहे हो। मेहनत मेरी और मजे तुम लूट रहे हो। तुम्हारी तरह मैं चमचमाती गाड़ियों और सियासत के ऊंचे पदों पर आसीन नहीं हूँ। मैं तो प्रकृति के विश्वविद्यालय का स्वच्छंद विद्यार्थी हूँ जिसे सिर्फ मेहनत करना सिखाया गया है, गुमराह करना नहीं।

तुम भूल रहे हो मैं कमजोर नहीं... सियासत के रहनुमाओं... सियासत की जिस गद्दी पर तुम बैठे हो ना उसे बनाता भी मैं ही हूँ और बिगड़ता भी मैं ही हूँ। इससे पहले कि देर हो जाए मैं तुम्हें समझाता हूँ कि मुझे कमजोर मत समझना... मजबूर मत करना... भले ही मुझे कागज, कलम और स्याही का ज्यादा ज्ञान नहीं लेकिन जो पाठ मैंने सीखा वह तुम्हारी झूठी शान वाले सियासत की महलों को ढेर कर देगा।

सुनो अभी तो... मैं किसान हूँ चिड़िया के साथ रहता तितली के साथ आसमान में घूमा करता हूँ ओंस की बूंदो से बातें करता सूरज की रोशनी और चाँद की ध्वल ज्योत्सना संग नृत्य करता हूँ और मैं प्रकृति की गोद में जीवन को और जगत की नई गाथा लिखता हूँ।
मैं किसान हूँ अन्नदाता हूँ धरती का साक्षात भगवान हूँ मेरे हाथ में कुदाली नहीं तुम्हारी ज़िंदगी की मशाल है जो सदैव जलती रहेगी तुम्हें रोशनी मिलती रहेगी जिस दिन ये मशाल बुझ जाएगी तुम्हारी साँसो की डोर टूट जाएगी।

जिन समस्याओं से मैं घिरा हूँ उन्हें दूर कर बचा ले बुझने से अपनी जिंदगी की मशाल को...
अगर फिर भी दिखाई नहीं देता तुम्हें मेरे दुःख भरी व्यथा समझ में नहीं आती मेरी गाथा... तो सुन इतिहास गवाह है जब जब मैं बाहर निकला हूँ तब तब प्रलय आया है। अब भी समय है तुम्हारे पास समझ लो मुझको... पढ़ लो मेरी संवेदना को... मेरे दर्द को... आज मैं जिन समस्याओं से घिरा हूँ उन्हें दूर कर लो ताकि मैं अपनी मेहनत का स्वाद चख लू और एक बेहतर जिंदगी जी लूँ।

श्याम "राज" - जयपुर (राजस्थान)

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