त्योहार - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

कई सालोंं से
लग रहा है कि
त्यौहार में
वह ख़ुशी
हँसी उत्सुकता
प्रतीक्षा और रुझान 
अब आम हो गया है
क्योकि
दिवाली के
दिन व् अमावस
की रात संसकित 
संकुचित  हो
गयी है।
ईद का
व्यापक अर्थ
को छुपाने
के लिए धर्म के ठेकेदार
कमर कस,
जी जान से
सलंग्न है।
होली का
हुडदंड और
रंग अब
सहासीन
हो सिमट कर
वेरंग हो गये।
रक्षाबंधन
के धागे
कच्चे पढ़ने लगे
क्योकि वह भाई
क्या रक्षा
करेगा जो
खुद भयभीत है।
इसीलिए अब
त्योहारो में केवल
आहार और
उदास सरोकार रह गये है।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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