यूँ ही दूर नहीं होता कोई अपनों से,
मजबूरियाँ ही दूर कर देती हैं।
यूँ ही नहीं पिघलते पत्थर आहों से,
खामोशियाँ भी चूर कर देती हैं।
ना उदास हो समदर्शी मिलन भी होगा,
दर्द, स्मृतियाँ दूर कर देती हैं।
दूर हूँ, उदास भी हूँ, प्यास समंदर ही नहीं,
नदियाँ भी दूर कर देती हैं।
चाहता हूँ रोज मिलन हो तुमसे,
ये मजबूरियाँ ही दूर कर देती हैं।
चाहता हूँ बेकसूर रहूँ मैं,
मगर तुम्हारी यादें कसूर कर देती हैं।
सोच लिया मिलूँगा तुमसे,
सोचते ही धड़कनें जी हजूर कर देती हैं।
पुनेश समदर्शी - मारहरा, एटा (उत्तर प्रदेश)