धरती की चेतावनी - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

मेरे प्यारे बच्चों 
मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ?
क्या क्या बताऊँ?
तुम्हें अपनी धरती माँ की
चिंता शायद नहीं हो रही है,
इसीलिए मेरी साँसे घुट रही हैं।
मेरा सीना छलनी कर रहे हो,
हरे भरे पेड़ों की जगह
कंक्रीट के जंगल बना रहे हो,
अंधाधुंध खुदाई कर
मेरी नींव हिला रहे हो,
प्रदूषण की नयी दुनियाँ सजा रह हो,
मेरे जल स्रोतों/नदियों/सरोवरों के
अस्तित्व से खिलवाड़ कर रहे हो।
आखिर मैं भी कब तक
क्या क्या सहूँ?
मेरे भी सब्र का बाँध टूट रहा है।
पहले भी बाढ़,सूखा, भूकंप
तूफान, महामारी से तुम्हें
सचेत करती रही हूँ,
परंतु तुम सब अपनी धरती माँ को
बस! मुँह चिढ़ा रहे हो।
बस बहुत हो चुका
पानी सिर से ऊपर आ चुका।
पीने के पानी, साँसो की समस्या से
दो चार हो ही रहे हो,
फिर भी बेशरमों की तरह
मुँह मोड़ रहे हो।
बस! अब आखिरी बार समझा रही हूँ,
बड़े प्यार से फिर बता रही हूँ,
जीने की लालसा रखते हो तो
मेरा भी ख्याल करो।
वरना अपने अस्तित्व को भी
तरस जाओगे, 
अपनी इस धरती माँ के आँचल में
मुँह भी छिपाने को नहीं पाओगे,
तुम्हारी सुख सुविधाएं यहीं रहेंगी
पर सुख उठाने के लिए
तुम नहीं रह पाओगे,
अपनी ही धरती माँ की
आह की भेंट चढ़ जाओगे।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos