आत्मविस्मृति - कविता - प्रवीन "पथिक"

हम उस राह के हैं पथिक!
जाते जिस पथ से, 
वहाँ तेरे पाँवों की आहट सुनाई देती!
तेरी छनकती पायल;
खनकती चूड़ियाँ;
कानों की झूमती बाली,
औ कमर की करधनी;
जैसे भुलावे में डाल देती मुझे।
तब!
उस पथ से गुजरना,
असम्भव सा हो जाता;
मेरे लिए
धीरे धीरे 
डूबने लगता,
तेरे प्यार की गहराई में।
होता;
एक अपूर्व एहसास
तेरा होने का; तुझे छूने का,
शिथिल हो जाते;
मेरे पाँव,
जैसे जड़ हो गए हों
तेरी प्रतीक्षा में
एक साथ चलने के लिए
जीवन में;
जीवन भर के लिए।

प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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